गाजीपुर । अमूमन देवी मंदिरों में आम श्रद्धालूओं की मन्नतें पूरी होने पर लोग नारियल, चुनरी आदि प्रसाद के रूप में मां को भेंट चढ़ाते हैं। लेकिन भांवरकोल क्षेत्र के दलित बाहुल्य ग्राम सभा मसोन के उत्तरी -पश्चिमी सिवान के एकांत जंगलों में विद्यमान योगमाया राजमती देवी को त्रिशूल चढ़ते हैं। इस सिद्धपीठ आश्रम अपने दैवीय चमत्कारों से परिपूर्ण होने पर न जाने क्यों आज भी अपेक्षित विकास से काफी अछूता पड़ा हुआ है। जहां दसवीं शताब्दी के आसपास हजारों वर्ष पुराने वट-पीपल के खोड़रे से योगमाया राजमती की मूर्ति स्वयंमेव उत्पन्न हुई थी। मंदिर के पुजारी एवं यहां ब्याप्त किद्वन्तियों के अनुसार दसवीं शताब्दी में प्रतापी राजा राजेंद्र प्रथम उनके राज्य का विस्तार करते हुए सेना सहित जब आए तो उस वक्त यहां लंबा- चौड़ा काफी घना- घनघोर जंगल था। कालान्तर में जंगल इतना घनघोर था कि सूर्य की किरणें भी काफी मशक्त करते हुए यहां की जमीन पर दिखाई पड़ती थी। आक्रांता राजा राजेंद्र प्रथम रात्रि विश्राम के ध्येय से सेना के साथ रुके तो रात्रि में उन्हें एक दिव्य ज्योति मुक्त देवी क्या कहते हुए दिखाई दी की मैं बट- पीपल की खोड़रे में जमीन के अंदर विराजमान हूं। सुबह होते ही वह राजा अपने नौकरों से बट- पीपल के खोड़रे के नीचे की जमीन खोजने का आदेश देकर स्वयं वहां आकर किनारे खड़ा हो गया। करीब चार -पांच फुट गहरी खुदाई में पड़ी योगमाया मां राजमति की मूर्ति दिखाई दी। धार्मिक होने की वजह से वह अपने ऊपर माता का छाया समझ कर एक छोटा सा मंदिर बृक्ष के नीचे ही बनवाकर नित्य माता की पूजा -अर्चना करने की घोषणा करते हुए अपने लोगों को नियुक्त कर दिया बगल में कुछ ही दूरी पर एक किला भी बनवाया जिसका भगनावशेष आज भी ऊंचे टीले के रूप में विद्यमान है जहां से लगभग ढा़ई सौ वर्ष पहले कोटवां-नारायणपुर निवासी विश्वनाथ रस्तोगी को व्यवसाय करते जाते वक्त सात हण्डे दिखाई लिए जो जमीन से ऊपर थोड़ा बहुत दिखाई दे रहे थे तो उत्सुकता बस उन्होंने उन हण्डो को खोदकर निकाला तो उसमें चांदी के सिक्क भरे मिले। इसे दैविक चमत्कार सोच कर उन्होंने अपने गांव के सामने गंगा किनारे पक्की सीढियां और एक भव्य शिव मंदिर बनवाया जो आज भी गंगा स्नान करने वाले भक्तों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है। गंगा में भक्त स्नान करके शिव मंदिर में अर्ध्य देना नहीं भूलते है। वर्ष के दोनों नवरात्रि को यहां उत्तर प्रदेश बिहार मध्य प्रदेश से भक्त आते हैं और श्रद्धा के साथ अर्चन पूजा करके मन्नते मांगते हैं और जब उनकी मंत्र पूरी हो जाती है तो माता के दरबार में आकर प्रसाद स्वरूप तीन -चार फिट की लंबी वाले लोहे की त्रिशूल चढ़ाकर अपने को धन्य समझते है। पूजा- अर्चना करने के साथ-साथ नवरात्रि में कराहा भी मां को समर्पित करते हैं। मां के मंदिर परिसर में चढ़ाए गए सैकडों त्रिशूल बट -पीपल के तने से सटाकर रखे देखे जा सकते हैं यह भी बताया गया है कि हरएक माह में पूर्णिमा के दिन दूर-दूर से भक्तगण आते हैं और कराहा सहित पूजा -अर्चना करते हैं वैसे नवरात्रि के आखिरी दिन तो भक्तों की इतनी भीड़ होती है। कि कराहा देने के लिए जगह नहीं मिलती है भक्तजनों के सहयोग से स्थानीय पुजारी ने मां के मुख्य स्थान से सटे भव्य मंदिर का निर्माण कराया और मां की यह अतिप्राचीन मूर्ति के स्थान पर एक सुंदर मूर्ति भी तैयार करवाया तथा उसे वैशाख मास अक्षय तृतीया 2013 के दिन नवनिर्मित गर्भ गृह नया स्थापित करके करने की योजना निश्चित की तो रात्रि में माता राजमति ने सपने में आकर कडा़ आदेश देते हुए निर्देश दिया कि मेरी मूर्ति बदली नहीं जाएगी मेरी पुरानी मूर्ति को ही मंदिर के अंदर स्थापित करो। फिर क्या बात पुजारी ने प्रातः भक्तों को बताया फिर मां के निर्देशानुसार ही वैशाख की अक्षय तृतीया के दिन अति प्राचीन मूर्ति के चेहरे को अति सुंदर परिमार्जित करके गर्भगृह में धार्मिक पूजन समारोह के साथ स्थापित कर दिया गया। नवरात्रि के अंतिम दिवस को यहां भक्तों का मेला भी लगता है यह भी लोगों द्वारा बताया गया है कि मां के शक्ति से परिसर में छेड़खानी कोई नहीं कर सकता है। यदि करने का दुस्साहस करता है। तो मां के अदृश्य सांप उनके सामने फन फैलाकर तन जाते हैं ऐसा वाकया कई बार हो चुका है।