गाजीपुर । चलो मान लिया कि राम नहीं थे। राम के होने न होने पर आप संदेह कर सकते हैं, पर राम के प्रति जन-जन की असीम आस्था पर संदेह की गुंजाइश नहीं है। उत्साह और भावातिरेक से उमड़ पड़े लोगों की अथाह भीड़ देश में राम मंदिर की आवश्यकता की पुष्टि करती है। सिर्फ पेट भरना ही मनुष्य की ज़रूरत नहीं है। रोटी की ज़रूरत के अतिरिक्त भाव-भावना के तल पर भी मनुष्य की कुछ ज़रूरतें होती हैं, और ऐसी ही ज़रूरतों के तहत मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा इत्यादि की सुव्यवस्था की जाती है। अन्यथा क्या ज़रूरत थी काबा, काशी, अयोध्या, जेरुसलम, अमृतसर जा कर सर झुकाने की ? व्यक्ति किसी न किसी आस्था से जुड़ा होता है। किसी का राम के होने में आस्था है, तो किसी के राम के न होने में आस्था है। किसी की ऊर्जा राम के अस्तित्व के खण्डन में लगी है, तो किसी की राम की भगवत्ता के मण्डन में लगी है। मेरी दृष्टि में राम मंदिर का सिर्फ आध्यात्मिक महत्व ही नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व भी है। राम मंदिर से न जाने कितनों को रोजगार मिलेगा, देश के पर्यटन विभाग को विस्तार मिलेगा, जनसमूह ट्रेन, बस, आटो, होटल, फल-फूल, मिठाई इत्यादि पर खर्च करेंगे, जिससे लोगों के रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। लोगों को आर्थिक मजबूती मिलेगी। देश भर से अयोध्या आने वाले लोगों के बीच सामाजिक संबंध बढ़ेंगे। समरसता बढ़ेगी। इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा। देश के साथ-साथ विश्वभर के लोगों के बीच संबंध आकार लेंगे और विस्तार पाएंगे। इस तरह भारत का गौरव और बढ़ेगा।
आप न जाइए अयोध्या राम की भक्ति में, भवन निर्माण की अद्भुत, अनूठी कला देखने तो जाइए। भव्य मूर्ति के सृजनहार की सृजनशीलता देखने तो जाइए। सनातन की परम्पराओं को देखने-समझने के लिए तो जाइए। भक्ति भाव न हो तब भी जाइए। ताजमहल, लाल किला, कुतुबमीनार देखने जाते हैं, न ?इसी भाव से जाइए। इससे देश को सम्पूर्णता में समझ पाने की आपकी दृष्टि को विस्तार तो मिलेगा। अन्य धर्मों के खुले मन के बहुत सारे लोग राममंदिर देखने-घूमने आएंगे, जिससे सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा। हिन्दू भी तो जाते हैं अजमेर शरीफ, अमृतसर, बोधगया, राजगीर इत्यादि ! वह बात यहां भी हो सकती है। राम को भगवान के रूप में नहीं देखना है, तो न देखिए। पुरुषोत्तम के रूप में देखिए। राज सत्ता के लिए जहां लोग पिता को बंदी बनाते रहे, परिजनों की हत्या करते रहे, वहीं राम माता-पिता के आदेश के पालन में सहर्ष वनवास स्वीकार करते हैं। तनिक भी क्षोभ नहीं, बल्कि मां-पिता की आज्ञा के पालन का अवसर पा कर धन्य हो जाते हैं। राम कहते हैं -“जो पितु मातु कहहीं बन जाना, सो कानन सत अवध समाना।” जिस भाई भरत को गद्दी दी जाती है, वह स्वयं गद्दी पर न बैठ, उस पर भाई की चरण पादुका रख कर भाई की ओर से राज्य नहीं करता, बल्कि राज्य की देखभाल करता है। भरत केयरटेकर के रूप में नि:स्वार्थ राजधर्म का निर्वहन करते हैं। राम, राजा होकर भी जनता के आगे बेहद विनम्र हैं। कहते हैं – “जो अनीति कछु भाषौ भाई, तो मोहि बरजहुं भय विसराई।” प्रजातांत्रिक मूल्यों की इस प्रगाढ़ पक्षधरता को हम कैसे नकार सकते हैं। अपने सेवक हनुमान के लिए राम की अभिव्यक्ति है कि -“सुन कपि तोहि समान उपकारी, नहिं कोई सुर, नर मुनि तनु धारी” और इतना ही नहीं, फिर – “प्रति उपकार करौं का तोरा, सनमुख होई न सकत मन मोरा।” राम के हृदय की विराटता और रामत्व की यह पराकाष्ठा है। वहीं असम्भव को सम्भव बना देने वाले हनुमान के मन की निर्मलता, विनयशीलता तो देखिए। अपने किए का लेशमात्र भी अहंकार नही है! प्रभु राम के संकट में इतना कुछ कर जाने के बाद भी उनसे कहते हैं -” सो सब तव प्रताप रघुराई, नाथ न कछु मोहि प्रभुताई ” राम और हनुमान दोनों एक दूसरे के प्रति असीम कृतज्ञता के भाव से उमड़ पड़े हैं। रामचरित मानस में तमाम ऐसे उदाहरण हैं, जो समाज को समन्वयवादी संदेश देने वाले हैं। राम मंदिर की स्थापना सिर्फ एक भवन विशेष की स्थापना नहीं, बल्कि करोड़ो लोगों की आस्था के सम्मान की पुनर्स्थापना है। देश के सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों तथा समन्वयवादी सोच को और अधिक चमक तथा विस्तार देने का एक प्रणम्य प्रयास है। मैं जानता हूं कि राम विरोधी यहां “ढोल गंवार….ताड़न के अधिकारी” जैसे प्रकरणों का उल्लेख कर अपने वितण्डावाद का प्रहार करना चाहेंगे। यहां इसपर अभी बहस करना उपयुक्त नहीं है। मेरा ध्येय राममंदिर की उपादेयता को वाजिब ठहराना है, धार्मिक आधार पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर भी। इस विराट जगत में प्रतिपल स्पंदित परम सत्ता मेरे लिए परमात्मा है। इसे आप जिस रूप में भी देख रहे हों, आपकी आस्था को हृदय से नमन है मेरा ! डॉ. उमेश कुमार सिंह प्रधानाचार्य श्री हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज, वाराणसी ।
Leave a comment